तीसरी रात महेश शर्मा पहला दिन, सुबह : 8 बजे वह आवाज़ ठीक वैसी थी मानो किसी चाकू या तलवार को, धारदार बनाने के लिए, किसी पत्थर पर घिसा जा रहा हो। हालाँकि यह आवाज़ बहुत ही धीमे से उभरी थी लेकिन इस सन्नाटे में साफ-साफ सुनी जा सकती थी। उसके कानों ने इसे सुना और वह सिहर उठा। डर किसी लकीर की तरह उसके भीतर खिंचता चला गया। उसने आँखें खोलने की कोशिश की। उसे, हाथ-पैर बांध कर, एक कोने में पटक दिया गया था। चारों तरफ घने अंधेरे के अलावा कुछ नहीं है। उसकी आँखों को भी कस