जनता का पैसा

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" जनता का पैसा " [ नीलम कुलश्रेष्ठ ] अवध एक्सप्रेस के ए.सी. टू टियर के पर्दों के बीच में से एक हष्ट पुष्ट टी.टी.की आकृति झांकी, ठिठकी, फिर आगे बढ़ गयी. एक मिनट बाद वही आकृति वापिस आई व उससे पूछने लगी, "आप रश्मि जीजी हैं न ? " "हाँ `."उसने उस विशाल आकृति को कुछ क्षण देखकर बरसों पहले के पतले दुबले लड़के को ढूंढ़ लिया, "अरे !उमेश तुम ?बरसों बाद तुम्हें देख रहीं हूँ. कैसे हो ?" "देख तो रहीं हैं ,बहुत मज़े में हूँ ."कहते हुए उसने रश्मि और उसके पति के पैर छुए . "तुमबहुत बदल गए हो इसलिए मैं तुम्हें पहचान नहीं पाई ,"फिर वह संभल कर बोली ,"मैं भी तो बुढ़ा गयी हूँ ." "भाई साहब ने फ़ोन कर दिया था कि आप व जीजाजी अवध से आ रहे हैं. मेरी ड्यूटी इसी ट्रेन में थी इसलिए मैंने सोचा आपसे मिल लूं ." रश्मि की ख़ुशी छलकी पड़ रही थी ,"बरसों बाद तुमसे मिलकर अच्छा लग रहा है ." "और क्या दूर रहने से रिश्ते टूट थोड़े ही जातें हैं .आप कल शाम को भाई साहब के साथ हमारे यहाँ ज़रूर आइये ." दूसरे दिन शाम को रमेश का दो मंज़िला रंग बिरंगे बल्बों से सजा घर स्वागत करता मिलता है, दीपावली अभी अभी गयी है .वह चुटकी लेती है ,"बहुत ज़ोर की ऊपर की कमाई चल रही है ." "आप बरामदे में रखे तसले, फावड़ों को देखकर समझ गयीं होंगी हमारे यहाँ मज़दूर लगे हुए हैं .अपने मकान में कुछ न कुछ बनवाता रहता हूँ. जनता का पैसा जनता में ही बांटता रहता हूँ ." साथ आये भाईसाहब व भाभी और रश्मि व उसके पति खिलखिला पड़ते हैं . जब वे लोग उसके घर से चलने लगतें हैं तो वे उन दोनों के हाथ में कुछ करारे नोट थमा देता है. वह संकुचित है बरसों तक दूर के रिश्तेदारों से मिल नहीं पाओ