दिन बीत रहे हैं बोझिल से,मेरे हर दिन के,हर हिस्सों मे तुम सुर्ख़ियों में हो,मैं गुमनाम कहीं खोयी हूं,गुमनामी के अंधेरों में..तुम मशहूर हो रहे हो,मेरी दुनिया के बाज़ारो में..मैं हर दिन मिट रही हूँ,जैसे हर रोज़ सूरज अस्त होता है...दूर किसी छोर से,आहिस्ता आहिस्ता..किसी नीर की शीतलता उसे झुलसा रही हो..ख़ुद में मिटा रह हो, उसके वजूद को..और धीरे धीरे पिघल रहा हो किसी सागर में..था भी क्या पास,जिसका डर हो खोने का..फिर क्यों लग रहा है, जैसे खो दिया है, एक हिस्सा खुद का..अब बैचैन करने लगा है ये तन्हाई का शोर...दर-बदर क्या ख़ोज रहा है मन जाने किस