जो घर फूंके अपना 10 सौ सौ सवाल लड़ाकू विमानों पर ! बहुत जल्दी ही समझ में आ गया कितना कठिन था पूरे दो महीने की छुट्टी अपने छोटे से ‘देस’ में बिताना. बस एक सहारा था गंगा के घाटों का जहां संध्या समय घूमने में बहुत मज़ा आता था. सुबह सुबह जाता तो और ज़्यादा मज़ा आता. पर मैं उस बदनामी से डरता था जो सुबह सुबह घाटों की सीढ़ियों पर बैठकर प्राकृतिक कम और मानवीय सौन्दर्य अधिक निहारने वालों की उस छोटे से शहर में हो जाती थी. पिताजी के क्लिनिक जाने के बाद अर्थात नौ दस बजे