चेतना के द्वार पर दस्तक देती रही चलीस दुकानवाली... वक़्त जिस तेजी से बीत रहा था, उतनी ही तीव्रता से उस अनजानी ऊर्जा-शक्ति का हस्तक्षेप भी बढ़ता जा रहा था। मेरी व्यग्रता और चिंता भी बढ़ने लगी थी! मन हर क्षण इसी फिक्र और उधेड़बुन में लगा रहता कि वह कौन है, जो यह उत्पात कर रहा है। चालीस दुकानवाली तो वर्षों से गायब थी और कानपुर छोड़ने के बाद, मेरी चाहना के बावज़ूद, उसने कभी मेरी सुधि नहीं ली थी। वह तो हमेशा मेरी हित-चिंता में लगी रहती थी, कभी किसी प्रकार का कष्ट मुझे नहीं दिया था उसने। तब