खेल ----आखिर कब तक ? (1) मन की उद्वेलना हमेशा शब्दों की मोहताज नहीं होती । होती है कोई कोई ऐसी उद्वेलना जिसके बीज मिट्टी में डले तो होते हैं मगर अंकुरित होने के मौसम शायद बने ही नहीं और गुजर जाते हैं जाने कितने सावन और बसन्त, चिता की राख तक पहुँचने तक नही खुलती जुबाँ । कहरों के शहर में बलवा न हो जाए का डर छीन लेता है दिल दिमाग की सुकूनियत और जुबाँ लगाकर खामोशी का ताला छीजती रहती है उम्र भर । रोज रोज होते अनाचार व्याभिचार जगा ही गए मेरी सुप्त ग्रंथि को और