"नहीं... अंदर मत आना... " दरवाज़ा खोलते ही चीखते हुए स्वर आया। आवाज़ दिया की ही थी। "बेटा, मैं हूँ - मम्मा।" कहते हुए उसकी माँ उस अंधेरे कमरे में आगे बढ़ी, पीछे पिता थे। दोनों धीमे-धीमे कदमों से चल रहे थे, उनके दिल धड़क रहे थे। रंगहीन समय कितने ही रंग दिखला देता है! जिस बेटी को जन्म दिया, पाला-पोसा, आज अपनी ही उसी बेटी से डर लग रहा था। दो दिनों पहले वे एक रिश्तेदार की शादी में शहर से बाहर गए थे। दिया घर में अकेली थी। आज सवेरे लौटे ही थे। घर के दरवाज़े पर पहुंचते