कौन दिलों की जाने! - 43 - अंतिम भाग

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कौन दिलों की जाने! तिरतालीस अप्रैल के दूसरे सप्ताह का एक दिन। सुबह मंद—मंद समीर बह रही थी। बेड छोड़ने तथा नित्यकर्म से निवृत होकर आलोक और रानी लॉन में झूले पर बैठे मॉर्निंग टी की चुस्कियाँ ले रहे थे कि सौरभ का फोन आया — ‘पापा, हमने कल रात दिल्ली लैंड किया था। हम हयात रिजेंसी में रुके हुए हैं। आप हमें मिलने आ जाओ।' सौरभ की दिल्ली आकर मिलने की बात सुनकर आलोक ने आश्चर्यचकित हो प्रश्न किया — ‘क्यों, इतनी दूर आकर पटियाला आये बिना ही वापस जाना है क्या?' जवाब देते हुए सौरभ कुछ हिचकचाते हुए