कौन दिलों की जाने! चालीस एक दिन साँझ पूर्व जब अस्ताचलगामी सूर्य ने अपने विविध रंग पश्चिमी क्षितिज पर बिखेरे हुए थे, आलोक और रानी लॉन में बैठे चाय पी रहे थे कि प्रोफेसर गुप्ता का फोन आया। वे पूछ रहे थे — ‘आलोक, घर पर ही हो?' ‘हाँ, क्यों?' ‘गपशप करने आना था।' ‘आ जाओ यार, तुम्हें पूछ कर आने की कब से जरूरत पड़नेे लगी?' ‘अरे भाई तुम ठहरे उन्मुक्त परिन्दे, पता नहीं कब, कहाँ अन्तर्धान हो जाओ!' ‘इन बातों को छोड़ो और सुनो! अकेले मत आना, भाभी जी को भी साथ लाना।' ‘हम दो मोलड़ों के बीच