निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 26

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'पांच-पच्चीस का विचित्र चक्र...' अभी-अभी परलोक चर्चाओं की पच्चीसवीं कड़ी समाप्त हुई है। जब कॉलेज में था, एक विदेशी लेखक के उपन्यास का हिन्दी तर्जुमाँ 'पच्चीसवाँ घण्टा' पढ़ा था। उसकी घंटा-ध्वनि की गूँज आज तक श्रवण-रंध्रों में गूंजती है कभी-कभी.…! पिछली पच्चीसवीं क़िस्त पर आकर ठहर गया हूँ और न जाने क्यों 'पच्चीसवें घंटे' की याद आ गई है, जबकि दोनों में कोई साम्य नहीं है--न कथा का, न परिवेश का और न ताने-बाने का। पच्चीसवीं क़िस्त पर रुककर याद करता हूँ कि पाँच दिन की प्रतीक्षा मुझे भी असह्य होती जा रही थी। दिन व्यतीत होने का नाम नहीं ले