निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा...- 20

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परालोक एक अँधेरी सुरंग की तरह है...मुझे सुदूर अतीत में फिर लौटना होगा।...बहुत दिनों से मेरे कमरे में परलोक-चर्चाएँ नहीं हुई थीं, लेकिन परिसर में उनकी चर्चाओं का बाज़ार गर्म था। ज्यादातर लोग मेरे पीठ पीछे इनकी चर्चाएँ करते थे। जो ज्यादा निकट थे, वे तो मित्रता में अधिकारपूर्वक मुझे 'बाबा भूतनाथ' भी पुकार लेते। मुझ पर इस पुकार का कोई प्रभाव न होता। इसे मैं उनकी प्रीति का पुरस्कार ही मानता था, लेकिन शाही को यह सम्बोधन नागवार गुज़रता। वह प्रायः मुझसे कहते, 'अब यह सब बंद करो, नहीं तो पूरा दफ़्तर और मिल के लोग तुम्हें 'भूतनाथ ही