देस बिराना किस्त अठारह समझ में नहीं आ रहा कि इन पत्रों का क्या जवाब दूं। अपने यहां के मोरचे संभालूं या देहरादून के। दोनों ही मोर्चे मुझे पागल बनाये हुए हैं। गुड्डी ने तो कितनी आसानी से लिख दिया है बेशक भारी मन से ही लिखा है लेकिन मैं कैसे लिख दूं कि यहां भी सब खैरियत है जबकि सब कुछ तो क्या कुछ भी ठीक ठाक नहीं है। मैं तो चाह कर भी नहीं लिख सकता कि मेरी प्यारी बहना, खैरियत तो यहां पर भी नहीं है। मैं भी यहां परदेस में अपने हाथ जलाये बैठा हूं और