निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 10

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वह डाली तो अभी हरी थी....10 सप्ताहांत समीप आ गया था और मैं तीन दिनों के रतजगे और लेखा-विभाग में दिन के वक़्त आँखफोड़ अंक-व्यापार से क्लांत हो गया था। शनिवार की शाम की आतुर प्रतीक्षा थी, वह आ पहुँची। मैंने अपना बुद्धिजीवी झोला उठाया, उसमें सिल्क की धोती और अखबार की तह में लपेट कर शीशे की छोटी गिलासिया रखी। बोर्ड आकार में झोले से बड़ा निकला, उसे भी एक पेपर में पैक किया और साइकिल के करियर में दबा दिया। यथापूर्व मुझे श्रीलेखा और मधुलेखा दीदी के घर जाना था। मन में उत्साह था, चाहता था कि शीघ्र