निश्छल आत्मा की प्रेम-पिपासा... - 2

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मेरे रोने की आवाज़ जैसे ही वातावरण में गूंजी, चाचाजी और उस अज्ञात स्त्री की वार्ता अवरुद्ध हो गई। चाचाजी अपनी चौकी से उठकर मेरे पास आये और पूछने लगे--'क्या हुआ, रो क्यों रहे हो ? ' मेरे मुंह से तो शब्द ही नहीं निकल रहे थे। बोलने की कोशिश की तो हकलाकर रह गया। चाचाजी ने मेरी मशहरी उठाई और मेरे पास बैठ गए, मेरी पीठ सहलाते हुए बार-बार अपना वही प्रश्न दुहराते रहे। थोड़ी देर में मैं संयत हुआ और अंततः मेरे मुंह से बोल फूटे--'मुझे यहां डर लग रहा है।' उन्होंने मेरी बात सुनकर कहा--'ठीक है, डरो