दरका आइना

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जेठ माह की तपती आग उगलती लंबी रात थी। हवा में बेहद तपिश थी। दुर्गा की टीन-टप्पर की बनी खोली में एक भी खिडक़ी नहीं थी। रात को टीन का दरवाजा जो बंद होता तो पूरी खोली जैसे दमघोंटू भट्टी बन जाती। अभी-अभी उमस भरी शिद्दत की गर्मी में पसीना-पसीना होकर दुर्गा की आंख अचानक खुल गई और आदतन उसका हाथ बगल की खटिया पर गया था। लेकिन आशा के विपरीत जब उसका हाथ निहाल से छू गया तो वह चिंहुक उठी। निहाल.... आज निहाल यहां है, नींद की खुमारी से उबरते हुए उसने सोचा। निहाल को अपने पास देखकर