पिछवाड़े का कब्रिस्तान

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पूर्व प्रकाशित 'दैनिंक जागरण ' ७ मार्च २०१६ लोग कहते हैं कि कहानी लिखो तो वो अक्सर हकीकत में बदल जाती है. लेकिन इतना कह देने भर से कहानी लिखना बंद नहीं हो जाता. लोग कहानियां लिखते हैं, जी भर के लिखते हैं. कुछ लोग इन्हें छापते भी हैं. और फिर बहुत से लोग इन्हें पढ़ते हैं. इसके बावजूद कुछ लोग आपको धमका भी सकते हैं जो शायद आप को कहानी लिखने में रूकावट का एहसास करवाए. लेकिन फिर भी आप कहानी लिखने से बाज़ नहीं आते. ऐसी ही एक कहानी काव्या ने कभी लिखी थी. आज पढ़ने में आयी तो आप सब के साथ सांझा कर रही हूँ. एक औरत थी जिसे ज़िंदगी जीने का बेहद शौक था. और वो ज़िंदगी कोई ऐसी वैसी ज़िंदगी नहीं थी जैसी हम और आप जिया करते हैं. कि सुबह उठे, तैयार हुए, खाया-पिया, काम पर गए, कुछ काम किया कुछ हरामखोरी, फिर घर लौटे, खाया-पिया, सो गए और अगले दिन फिर वही.