(जमाना कोई भी हो, जब - जब किसी स्त्री ने अपने ऊपर हुए जुल्मों के विरुद्ध आवाज उठाई है। उसे न्याय अवश्य ही मिला है। ये घटना अंग्रजों के ज़माने की है।) सावित्री रात के अमावस के से अँधेरे को चीरती हुई आगे बढती जा रही थी। सहसा उसे चार जोड़ी आँखें, वासना से भरी और लपलपाती जुबान अपनी आँखों के आगे कौंध गयी और उसने ऊँठ की नकेल खींच डाली। जोर से रुलाई फूट पड़ी। सोलह वर्षीय बालिका वधु सावित्री, ब्याह कर ससुराल आयी तो सास -ससुर और ननद कोई भी नहीं था। पति रण विजय सिंह इकलौते ही थे। माँ जन्म देते ही स्वर्ग सिधार गयी तो पिता भी उसके दस वर्ष के होते -होते गुजर लिए थे। उनका पालन उनकी बुआ जमुना ने ही किया था। घर में सिर्फ वे तीन ही प्राणी थे। पति के परिवार में नजदीक - दूर के भाई, रिश्तेदार तो थे ही। जिनसे सावित्री की मुलाकात उसके पति ने विवाह के उपरांत करवाया था।