कोलाहल

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एक अनजान सी चुप्पी मेरी जुबान पर रखी दिन रात मुझे उलाहने देती रहती है. अक्सर सोचता हूँ कि इस चुप्पी को ढहा कर एक इमारत खडी कर दूँ, जिसका नाम मेरे अपने नाम पर हो. दुनिया में जब कोई किसी का भी नाम ले तो इस ईमारत का नाम भी उसमें शामिल हो और मेरा नाम गूँज गूंज कर इस चुप्पी को धराशायी करता रहे. लेकिन चुप्पी एक ही बात की रट लगाये रहती है, “ मैं बोलूंगी तो बदनाम न हो जाउंगी?” मैं कहता हूँ, “ तुम भला क्यूँ बदनाम हो जाओगी ?” “इसलिए कि मेरा नाम ही चुप्पी है.” “तुम्हारा नाम ही तो चुप्पी है. तुम खुद तो चुप्पी नहीं हो. इस वक़्त मुझसे भी तो यह सब बोल कर ही कह रही हो.”