भोजन की थाली उसी तरह पड़ी रही। उसकी आंखों से आंसू की बड़ी-बड़ी बूंदे गालों पर से झर-झर नीचे गिरने लगीं। अपूर्व की मां को उसने कभी देखा नहीं था। पति-पुत्र के कारण उन्होंने जीवन में बहुत कष्ट उठाया था। इसके अतिरिक्त उनके संबंध में विशेष कुछ नहीं जानती थी। लेकिन कितनी ही बार, अपने एकांत कमरे में, रात के समय जागती हुई उसने उस बूढ़ी विधवा स्त्री के संबंध में कितनी ही कल्पनाएं की थीं। सुख के समय नहीं, दु:ख के समय में भी अगर उनसे भेंट हो-जब उसके सिवा उनके पास और कोई न हो-तब ईसाई होने के कारण वह कैसे दूर हटा सकती हैं-यह बात जान लेने की उसकी बड़ी साध थी। बड़ी साध थी कि दुर्दिन की उस अग्नि-परीक्षा में अपने-पराए की समस्या का वह अंतिम समाधान कर लेगी। धर्म-मतभेद ही इस जगत में मनुष्य का चरम विच्छेद है या नहीं-इस सत्य की परीक्षा कर लेने के लिए ही वह चरम दु:समय उसके भाग्य में आया था, लेकिन वह उसे ग्रहण न कर सकी। इस रहस्य की जीवन में मीमांसा न हो सकी।