सौ कैंडल पॉवर का बल्ब

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वो चौक में क़ैसर पार्क के बाहर जहां टांगे खड़े रहते हैं। बिजली के एक खंबे के साथ ख़ामोश खड़ा था और दिल ही दिल में सोच रहा था। कोई वीरानी सी वीरानी है! यही पार्क जो सिर्फ़ दो बरस पहले इतनी पुर-रौनक़ जगह थी अब उजड़ी पचड़ी दिखाई थी। जहां पहले औरत और मर्द शोख़-ओ-शंग फ़ैशन के लिबासों में चलते फिरते थे। वहां अब बेहद मैले कुचैले कपड़ों में लोग इधर उधर बीम-क़सद फिर रहे थे। बाज़ार में काफ़ी भीड़ थी मगर इस में वो रंग नहीं था जो एक मैले ठेले का हुआ करता था। आस पास की सीमेंट से बनी हुई बिल्डिंगें अपना रूप खो चुकी थीं। सरझाड़ मुँह फाड़ एक दूसरे की तरफ़ फटी फटी आँखों से देख रही थीं। जैसे बेवा औरतें।