“अरे..सब एक साथ उठ कर चल दिए। मैं अकेला रहूंगा अभी से...कोई एक तो रुको, मेरा जाम खत्म हो जाए, फिर चले जाना। ये रिवाज नहीं महफिल का...” बूढीं आखों में मिन्नतें चमकीं। आवाज लरज रही थी। जैसे सांझ लिपटी आवाज हो, लड़खड़ाती हुई, रात की तरफ बढती हुई. हथेलियां कंपकंपाती हुई उनकी तरफ बढीं। किसी ने नहीं थामा उन्हें। किसी की बस छूट रही थी. किसी को लिफ्ट मिल रही थी और किसी को अपने घर की जल्दी थी। उस शाम सिर्फ चार लोग थे, चाचा जी समेत। ज्यादा रात नहीं हुई थी, फिर भी सबको जल्दी थी। एक घंटे की मुलाकात में जिन्हें जो हासिल करना था, कर लिया था।