मायामृग - 18 - Last part

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सच तो है ‘ज़िंदगी जीने के योग्य नहीं रह गई है’ आपके रिश्ते, आपके संबंध, आपकी किसीके प्रति वफादारी तब तक ही है जब तक आप उसके लिए कुछ करने में समर्थ हैं अन्यथा आप एक ऐसे मूर्ख व्यक्ति हैं जिसे एक तथाकथित समझदार, होशियार व्यक्ति की दृष्टि में जीने का भी संभवत: कोई अधिकार नहीं है अब यूँ तो समझदारी की अपनी-अपनी परिभाषाएं बना लेता है मनुष्य ! और अनेक भ्रमों में जीता रहता है वह सामने वाले को मूर्ख समझ व बना सकता है और रिश्तों की उधड़न को एक सिरे से दूसरे सिरे तक खींच सकता है, वह ब्रह्मा बन जाता है, सृष्टि का पालक ! वह त्रिनेत्र बन सकता है, वह सामने वाले को फूँक सकता है, उसके भीतर से निकलने वाले धुंएँ से लिपटकर स्वयं को स्याह करने में उसे कोई हर्ज़ नहीं लगता, हाँ!