शेरू

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चीड़ और देवदार के ना-हमवार तख़्तों का बना हुआ एक छोटा सा मकान था जिसे चोबी झोंपड़ा कहना बजा है। दो मंज़िलें थीं। नीचे भटियार ख़ाना था जहां खाना पकाया और खाया जाता था। और बालाई मंज़िल मुसाफ़िरों की रिहायश के लिए मख़सूस थी। ये मंज़िल दो कमरों पर मुश्तमिल थी। इन में से एक काफ़ी कुशादा था। जिस का दरवाज़ा सड़क की दूसरी तरफ़ खुलता था। दूसरा कमरा जो तूल-ओ-अर्ज़ में उस से निस्फ़ था भटियार ख़ाने के ऐन ऊपर वाक़्य था। ये मैंने कुछ अर्से के लिए किराया पर ले रखा था। चूँकि साथ वाले हलवाई के मकान की साख़्त भी बिलकुल इसी मकान जैसी थी और इन दोनों जगहों के लिए एक ही सीढ़ी बनाई गई थी। इस लिए अक्सर औक़ात हलवाई की कुतिया अपने घर जाने के बजाय मेरे कमरे में चली आती थी।