कुछ आवाज़ें मरती नहीं

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मैं मरने वाली थी...आज नहीं तो कल, पर मेरा मरना तय था...। मरूँगी कैसे, ये भी पता था मुझे...। कितनी अजीब बात थी न...जिसकी ज़िन्दगी के खज़ाने का खात्मा होने वाला था, जिसकी पूँजी थी, उसे ही कुछ तय करने का अधिकार नहीं था कि उस दौलत को आखिर खर्च कैसे करना है...। करना है भी या नहीं...? ये तो अवश्यम्भावी था न कि ये ज़िन्दगी की दौलत हमेशा साथ नहीं रहती, पर कम-से-कम इतना अधिकार तो होना ही चाहिए न कि हम उस दौलत को कब, कितना और कैसे खर्च करना चाहते हैं...।