बंद गले का ब्लाउज

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‘बंद गले का ब्लाउज’ -दीपक रावल (मूल गुजराती से अनुवाद – मदनमोहन शर्मा) बालूभाई कब से बेचैन थे. आज लीला ने क्यों देरी की होगी ?रोजाना तो समय से आ जाती है. शंका – कुशंकावश बेचैनी बढ़ रही थी. चहलकदमी करने के बाद वे आराम-कुर्सी में बैठ गए. उनकी नज़र सामने के घर पर गई. नारण अखबार पढ़ रहा था. उसने बाबुभाई को देखा तो अजीब सा हंस दिया. बालूभाई ने मुह घुमा लिया. उन्हें नारायण का मुह नहीं सुहाता. हरामखोर....साला. जब भी हँसता है तो मुंह टेढ़ा कर लुच्चाई से हँसता है. पिछले कुछ दिनों से तो .....शायद उसने