खूँटे - 1

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‘‘मुझे हवा के घूँट पीने हैं....’’ आवाज झमक कर चेतना में गिरती है... सफेद पिलपिले हाथों से चेहरा घुमाने लगा है बेताल - सीधे..... ‘‘लिजलिजे स्पृश के बोझ तले दबी मेरी गर्दन टीसने लगी है... चल ही तो रही हूँ जाने कब से... जाने कहाँ... अंधेरी सुरंग कभी समाप्त ही नहीं होती...! मकान खंडहर में तब्दील हो चुका होगा या थोड़ा बचा होगा साबुत... गोया मेरी स्मृति जस की तस... इसे क्यों नहीं पोंछ पाया वक्त अपने सूखे रूमाल से...?