ख़्वाबगाह - 10

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आधी रात को तेज गड़गड़ाहट से मेरी नींद खुली। बांसुरी जैसे हवा में डोल रही थी और चीख रही थी। मैं घबरा गयी थी कि पता नहीं क्या हो गया है। उठ कर बाल्कनी तक आयी तो देखा आसमान में बादल बुरी तरह से गरज रहे थे। ये बरसात से पहले की गरज थी। अभी भी अंधेरा था। मैंने भीतर आ कर समय देखा। पौने पांच बजे थे। बरसात की मोटी मोटी बूंदें गिरने लगी थीं। मैंने अंदर आ कर विनय को जगाया था – विनय, बाहर आ कर देखो, नेचर हम पर किस तरह से मेहरबान हो रही है। विनय कुनमुनाया था - सोने दो, क्या हो गया है।