मुक्ति और भय

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वह पिछले पैतीस वर्षों से रोज अपने ऑफिस में कलम घिसते आ रहे थे, इस आशा में कि यह घिसाई शायद किसी के हित का हेतु बन जाये, पर उनकी यह घिसाई फाइलों के लाल फीते से बंध कर रह जाती या किसी और की कलम घिसाई के नीचे दब जाती. वे रोज मजबूर लोगों को व्यवस्था की चक्की में पिसते देखते, ईमानदारी पर बेईमानी की जीत देखते. शाम तक उनकी जीवन उर्जा क्षीण हो उठती. उन्हें लगता कि वे अभी इसी वक्त इस व्यवस्था के मुंह पर अपना इस्तीफ़ा मार कर फिर कभी वापस न आने के लिए निकल जाएँ. इस दुर्दमनीय इच्छा के बावजूद हर महीने एक तारीख को मिलने वाला वेतन उनके क़दमों की गिरह बन जाता.