अफसर का अभिनन्दन - 5

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व्यंग्य-- चुनाव ऋतु –संहार यशवंत कोठारी हे!प्राण प्यारी .सुनयने ,मोर पंखिनी ,कमल लोचनी,सुमध्यमे , सुमुखी कान धर कर सुन और गुन ऐसा मौका बार बार नहीं आता ,इस कुसमय को सुसमय समझ और रूठना बंद कर ,चल आ जा ,मइके से लौट आ वहां रहने की ऋतुएं तो और भी आ जायगी .लेकिन हे मृग नयनी यह जो चुनाव रुपी बसंत आपने बाणों के साथ हिमालय से उतर कर पूरे आर्याव्रत में महंगाई की तरह बढ़ रहा है ,ऐसा सुअवसर बार बार नहीं आता है.इसका स्वागत करने के लिए तू मेके से लौट आ. देख! बाहर खिड़की से बाहर