बासित

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बासित बिल्कुल रज़ामंद नहीं था, लेकिन माँ के सामने उस की कोई पेश न चली। अव्वल अव्वल तो उस को इतनी जल्दी शादी करने की कोई ख़ाहिश नहीं थी, इस के अलावा वो लड़की भी उसे पसंद नहीं थी जिस से उस की माँ उस की शादी करने पर तुली हुई थी। वो बहुत देर तक टालता रहा। जितने बहाने बना सकता था। उस ने बनाए, लेकिन आख़िर एक रोज़ उस को माँ की अटल ख़ाहिश के सामने सर-ए-तस्लीम ख़म करना ही पड़ा। दर-अस्ल इंकार करते करते वो भी तंग आगया था। चुनांचे उस ने दिल में सोचा। “ये बकबक ख़त्म ही हो जाये तो अच्छा है होने दो शादी। कोई क़ियामत तो नहीं टूट पड़ेगी....... मैं निभा लूंगा”।