खरपतवार

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उसकी यादों में कुछ दहशतें और कुछ वहशतें अब भी बाकी हैं. सप्ताह के बाकी दिन वह फाइलों, टेलीफोनों, लोगों से मुलाकातों के बीच वह खुद पर व्यस्तता के छिलके चढा लेता है. अवकाश के दिन ये छिलके उतर जाते हैं और वह अपनी आत्मा के आगे नंगा खडा होता है. स्थिति को बदल न पाने में जब वह खुद को नपुंसक महसूस करता है तो चल पडता है शहर से बाहर की ओरसमुद्र और क्षितिज की तरफशहर पीछे छोड क़र,