होती थी। उस समय वह मन्दिर में इसे ऊंचे स्वर में गाया करती थी। आज वह मन ही मन ईश्वर से वही प्रार्थना कर रही थी। इतनी कृपा दिखाना हे प्रभु कभी न हो अभिमान। मस्तक ऊंचा रहे मान से ऐसे हों सब काम। रहें समर्पित करें देषहित, देना यह आशीष। विनत भाव से प्रभु चरणों में झुका रहे यह शीश। करें दुख में सुख का अहसास रहे तन-मन में यह आभास। धर्म से कर्म, कर्म से सृजन, सृजन में हो समाज उत्थान। चलूं जब इस दुनियां का छोड़ ध्यान में रहे तुम्हारा नाम। दर्शन के बाद जब