सूरज का पीलापन कहीं छुप-सा गया था और उसने कुछ नारंगी, कुछ लाल सा आवरण ओढ़ लिया था। पंछियों की चहचाहट का कलरव भी आकाश में गुंजायमान होने लगा था। हवा भी कुछ शीतल जान पड़ रही थी। सन्नाटे से आच्छादित गलियों में भी अब कुछ धीमी, कुछ तीखी-सी आवाज़ों ने जगह बना ली थी। बच्चों की टोलियाँ भी हवा की तरह इधर-उधर भागती-सी थी। कहीं खिलखिलाहट थी कहीं गुस्से की आहट। जिंदगी के रंग बस यूँ ही बिखरे-से थे और इन सबको तकती सी मैं.....कुछ खोज तो नही रही थी फिर भी न जाने कहाँ