तपते जेठ मे गुलमोहर जैसा - 14

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अप्पी को लखनऊ से आये हुये महीना भर से ऊपर ही हो गया था..... आते ही अस्वस्थ हो गई थी..... शायद मन पर जो बोझ धर लेती है उसका असर तन पर दिखने लगता है..... उसने न तो सुविज्ञ को फोन ही किया इस दौरान न तो खत ही लिखा। हर सुबह एक नामालूम सी उम्मीद जगती शायद आज सुविज्ञ का फोन आ जाये...... पर दिन बीत जाने पर फिर वही उदासी भरी खिन्नता सवार हो जाती उस पर! वह अपने को दपटती.... क्यों उसने ऐसी बेजा ख्वाहिशें पाल रखी हैं...... ये तो अपने को जान बूझकर दर्द के रास्ते पर ले जाना हुआ! एक हफ्ते से मौसा मौसी भी नहीं थे.... गाँव गये थे! अभिनव का भी न कोई फोन न कोई खत ही आया...... सभी व्यस्त हैं..... वही एक खलिहर है..... सबको याद करती हुई पड़ी है! बहुत हुआ.....