प्रेम अपना अपना

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​​​​ ‘प्रेम अपना अपना‘‘अचानक महानगर से एक कस्बाई शहर में आ गयी थी। बदला-बदला वातावरण अनजाने लोग, अजनबी गलियाँ, जर्जर मकान में निवास, बिल्कुल अकेलापन था यहाँ। सामने लोगों की उकताई उग्र भीड़, घूरती आखें, बोलचाल की अलग भाषा, लगता कहीं दूर देश में रहने आयी हो। ऐसा नहीं था कि महानगर में लोगों की भीड़ नहीं होती, आखें नहीं घूरती है।पर वहाँ सब कुछ जलप्रवाह की तरह बहता रहता है। किसी के बारे में किसी को सोचने की फुरसत नहीं। परन्तु यहाँ तो बार-बार एक जैसे लोगों का झुंड और आखों की तिलस्मी