खतो-किताबत ने दिल्ली की भयावहता अमरेश के लिये कुछ कम कर दी थी। चचेरा ही सही कहने को उसका अपना परिवार तो था, फ़िर परिवार तो किसी का बिल्कुल ही ठीक नहीं होता सो उसका भी नहीं था। उसके गाँव से जो चिट्ठियां आतीं तो वो उन्हे संभालकर रखता। भले ही उसके माँ-बाप नहीं थे मगर अब वो खुद को अनाथ नहीं महसूस करता था।