लौट आओ दीपशिखा - 4

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“तुम्हारा बदन जैसे साँचे में ढला हो..... पत्थर कीशिला को तराशकर जैसे मूर्तिकार मूर्ति गढ़ता है ” वह रोमांचित हो उठी थी अपने इस रोमांच को वह चित्र मेंढालने लगी एकयुवती गुफ़ा के मुहाने पर ठिठकी खड़ी है युवती पत्थर की मूर्ति है मगरचेहरेझौंकोंज़िन्दग़ी को पा लेने की आतुरता है आँखों में इंतज़ार.....ज़िन्दग़ी का..... उसने शीर्षक दिया ‘आतुरता’..... उसे लगा मानो उसकी आतुरता मुकेश तक पहुँची है वह समंदर के ज्वार सा उसकी ओर बढ़ा चला आ रहा है पीछे-पीछे फेनों की माला लिए लहरें और रेत में धँस-धँस जाते मुकेश के क़दम..... वह मुड़कर समंदर के बीचोंबीच लाइट हाउस को देख रहा है जो तेज़ ऊँची-ऊँची लहरों पर डोलते जहाज़ों के नाविक को राह दिखाता है