स्वाभिमान - लघुकथा - 52

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“क्या भाई साहब आपके लिए रिश्तों से बढकर पैसा हो गया? कैसा जमाना आ गया है. सब अपने स्वार्थ में ऐसे डूबे हैं की किसी की परेशानियों से तो लेना-देना ही नहीं रहा...खा थोड़े ही न रहा हूँ आपका पैसा कर दूँगा वापस. हद है इतनी बार आपको बताया लेकिन आप हैं की तकाजे पर तकाजा किये ही जा रहे हैं...”