स्वाभिमान - लघुकथा - 43

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“सुनो ! तुम मुझे तुम्हारे वियोग के गहरे अहसास में अर्धचेतन-सा छोड़ गए थे। अपना जीवन स्वाहा करने की मंशा लिए मैंने जाना कि नवांकुर फूट गया है। तब से अब तक पल-पल, क्षण क्षण तुम्हे नैनों में बिठा तुम्हारे फूल को सींचा। आज तुम्हारा बेटा वृक्ष बन गया है। उसे समझाओ न, तुम्हारी राह पर न चले। उसे भी तुम्हारी तरह फौजी बनने का चाव है। उसी पथ का पथिक बन उड़ जाना चाहता है मुझसे दूर। डरती हूँ… कहीं वह भी तुम्हारी तरह…न-न… नहीं, मैं उसे कोई फौजी- वौजी नहीं बनने दूँगी। पहले मेरा पति और अब मेरा ही लाल ?… और भी माँओं के बेटे हैं शहादत के लिए…।” माँ-माँ पुकारता नमन उसके नजदीक आया तो वह झट आँचल से आँसू पौंछने लगी।