स्वाभिमान - लघुकथा - 38

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दरवाजे पर पंकज को देख, पल भर को आँखों पर विश्वास नहीं हुआ। खड़ी की खड़ी रह गयी ... नि:शब्द, हतप्रभ। सात फेरों के बंधन के बावजूद, पिछले तीस वर्षों से दोनों के बीच में अबोला था। इस बीच नारी सुलभ भावनाओं की लता सूख कर निष्प्राण हो चुकी थी। सुहासिनी का मन हुआ कि फटाक से दरवाजा बंद कर आराम से सोने चल दे लेकिन स्त्री का संवेदनशील मन जाने किस धातु का बना है, चोट पर चोट खाने के बाद भी धड़कना नहीं छोड़ता।