स्वाभिमान - लघुकथा - 18

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विश्वास करो जब मैं घर से निकला था न.. मेरा पोशाक सफेद थी। ये धब्बे मेरे नहीं हैं। घर से मंज़िल तक जो मिला अपना रंग छोड़ गया। किसका कसूर कहिए, अब का मौसम ही ऐसा है रास्तों पर कीचड़ पहले से है, फिर किसी की रफ्तार से, कभी किसी और की गलती से, कभी किसी के आहत अहम से जो उछला कि… बदरंग हम हो गए।