फिर कोई महाकाव्य - आनन्द सहोदर हिमालय से ऊंचेविशाल हृदय वालेदहकते अंगारों के समानआखों पर अनोखी शीतलतावर्फ से ढके हुए कंधेआधे पैरों को जमीन में गाढ़े हुएहे कल्पना पुरुष तुम कब से खड़े हो। तुम्हारे भाल के तल मेंवही हुई ज्ञान गंगा काएक भाग पृथ्वी पर अवतीर्ण होगा युग फिर गूंज उठेगा किसी महाकाव्य की वाणी से। हां हां सुनाई दे रहा हैहर स्वर हर एक कम्पनपर उसका आदि अन्त नहीं कहाँ से होगी कथा प्रारम्भ बाल्मीकि की रामायण से जो किसी भविष्य की तरह लिखी जा चुकी है। यह कथा है कथा कहीं से भी प्रारम्भ हो सकती है।