1837 सात साल बीत गये। उस समय हम लोग पहले के समान ही मास्को में रहते थे। किंतु अब मैं एफ0ए0 के दूसरे साल का विद्यार्थी था और मेरी दादी की, जो गत कई वर्षों से प्रत्यक्ष रूप में वृद्धा जान पड़ने लगी थीं, हुकूमत का भार मेरे ऊपर अब पहले जैसा नहीं रह गया था। मेरे जितने साथी छात्र थे, उनमें टारहोव नामक एक सुशील एवं प्रसन्न-हृदय नवयुवक था, जिसके साथ मेरी घनिष्ठता हो गई थी। हम दोनों के स्वभाव और रूचि में समानता थी। टारहोव कविता-प्रेमी था और स्वयं भी कविताएं लिखा करता था। मेरे हृदय क्षेत्र में पूनिन ने कविता के जो बीज बोये थे, वे निष्फल नहीं गये।