आजाद-कथा - खंड 2 - 107

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मियाँ आजाद सैलानी तो थे ही, हुस्नआरा से मुलाकात करने के बदले कई दिन तक शहर में मटरगश्त करते रहे, गोया हुस्नआरा की याद ही नहीं रही। एक दिन सैर करते-करते वह एक बाग में पहुँचे और एक कुर्सी पर जा बैठे। एकाएक उनके कान में आवाज आई -