आजाद-कथा - खंड 1 - 34

  • 5k
  • 1.1k

इधर तो ये बातें हो रही थीं, उधर आजाद से एक आदमी ने आकर कहा - जनाब, आज मेला देखने न चलिएगा? वह-वह सूरतें देखने में आती हैं कि देखता ही रह जाय। नाज से पायँचे उठाए हुए, शर्म से जिस्म को चुराए हुए! नशए-बादए शबाब से चूर, चाल मस्ताना, हुस्न पर मगरूर। सैकड़ों बल कमर को देती हुई, जाने ताऊस कब्क लेती हुई। चलिए और मियाँ खोजी को साथ लीजिए। आजाद रँगीले थे ही, चट तैयार हो गए। सज-धज कर अकड़ते हुए चले। कोई पचास कदम चले लोंगे कि एक झरोखे से आवाज आई -