आजाद-कथा - खंड 1 - 22

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मियाँ आजाद के पाँव में तो सनीचर था। दो दिन कहीं टिक जायँ तो तलवे खुजलाने लगें। पतंगबाज के यहाँ चार-पाँच दिन जो जम गए, तो तबीयत घबराने लगी लखनऊ की याद आई। सोचे, अब वहाँ सब मामला ठंडा हो गया होगा। बोरिया-बँधना उठाया और शिकरम-गाड़ी की तरफ चले। रेल पर बहुत चढ़ चुके थे, अब की शिकरम पर चढ़ने का शौक हुआ। पूछते-पूछते वहाँ पहुँचे। डेढ़ रुपए किराया तय हुआ, एक रुपया बयाना दिया। मालूम हुआ, सात बजे गाड़ी छूट जायगी, आप साढ़े-छह बजे आ जाइए। आजाद ने असबाब तो वहाँ रखा, अभी तीन ही बजे थे, पतंगबाज के यहाँ आ कर गप-शप करने लगे। बातों-बातों में पौंने सात बज गए। शिकरम की याद आई, बचा-खुचा असबाब मजदूर के सिर पर लाद कर लदे-फँदे घर से चल खड़े हुए।