आजाद-कथा - खंड 1 - 15

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मियाँ आजाद एक दिन चले जाते थे। क्या देखते हैं, एक पुरानी-धुरानी गड़हिया के किनारे एक दढ़ियल बैठे काई की कैफियत देख रहे हैं।कभी ढेला उठाकर फेंका, छप। बुड्ढे आदमी और लौंडे बने जाते हैं। दाढ़ी का भी खयाल नहीं। लुत्फ यह कि मुहल्ले भर के लौंडे इर्द-गिर्द खड़े तालियाँ बजा रहे हैं, लेकिन आप गड़हिया की लहरों ही पर लट्टू हैं। कमर झुकाए चारों तरफ ढेले और ठीकरे ढूँढ़ते फिरते हैं। एक दफा कई ढेले उठा कर फेंके। आजाद ने सोचा, कोई पागल है क्या। साफ-सुथरे कपड़े पहने, यह उम्र, यह वजा, और किस मजे से गड़हिया पर बैठे रँगरलियाँ मना रहे हैं। यह खबर नहीं कि गाँव भर के लौंडे पीछे तालियाँ बजा रहे हें। एक लौंडे ने चपत जमाने के लिए हाथ उठाया, मगर हाथ खींच लिया। दूसरे ने पेड़ की आड़ से कंकड़ी लगाई।