वसंत के दिन आए। आजाद को कोई फिक्र तो थी ही नहीं, सोचे, आज वसंत की बहार देखनी चाहिए। घर से निकल खड़े हुए, तो देखा कि हर चीज जर्द है, पेड़-पत्ते जर्द, दरो-दीवार जर्द, रंगीन कमरे जर्द, लिबास जर्द, कपड़े जर्द। शाहमीना की दरगाह में धूम है, तमाशाइयों का हुजूम है। हसीनों के झमकड़ें, रँगीले जवानों की रेल-पेल, इंद्र के अखाड़े की परियों का दगल है, जंगल में मंगल है। वसंत की बहार उमंग पर है, जाफरानी दुपट्टों और केसरिये पाजामों पर अजब जोबन है। वहाँ से चौक पहुँचे। जौहरियों की दुकान पर ऐसे सुंदर पुखराज हैं कि पुखराज-परी देखती, तो मारे शर्म के हीरा खाती और इंद्र का अखाड़ा भूल जाती। मेवा बेचनेवाली जर्द आलू, नारंगी, अमरूद, चकोतरा, महताबी की बहार दिखलाती है, चंपई दुपट्टे पर इतराती है।