आजाद को नवाब साहब के दरबार से चले महीनों गुजर गए, यहाँ तक कि मुहर्रम आ गया। घर से निकले, तो देखते क्या हैं, घर-घर कुहराम मचा हुआ है, सारा शहर हुसेन का मातम मना रहा है। जिधर देखिए, तमाशाइयों की भीड़, मजलिसों की धूम, ताजिया-खानों में चहल-पहल और इमामबाड़ों में भीड़-भाड़ है। लखनऊ की मजलिसों का क्या कहना! यहाँ के मर्सिये पढ़नेवाले रूम और शाम तक मशहूर हैं। हुसेनाबाद का इमामबाड़ा चौदहवीं रात का चाँद बना हुआ था। उनके साथ एक दोस्त भी हो लिए थे। उनकी बेकरारी का हाल न पूछिए। वह लखनऊ से वाकिफ न थे, लोटे जाते थे कि हमें लखनऊ का मुहर्रम दिखा दो मगर कोई जगह छूटने न पाए। एक आदमी ने ठंडी साँस खींच कर कहा - मियाँ अब वह लखनऊ कहाँ? वे लोग कहाँ? वे दिन कहाँ? लखनऊ का मुहर्रम रंगीले पिया जान आलम के वक्त में अलबत्ता देखने काबिल था।