शरीर के सुचारू संचालन के लिए जितना महत्व रक्त का है , उतना ही महत्व जीवन को सुचारू ढंग से चलाने के लिए धन का है । किंतु , जिस प्रकार शरीर के लिए एकमात्र रक्त की आवश्यकता नहीं होती , उसी प्रकार जीवन भी एकमात्र धन से संचालित नहीं हो सकता । आज के भौतिकवादी युग में उपभोक्तावादी संस्कृति का प्रभुत्व इतना बढ़ रहा है कि लोग सामाजिक मूल्यों की अवहेलना करके भी धन अर्जित करने में संकोच नहीं करते हैं । वे अपने इस अन्ध स्वार्थ की पूर्ति हेतु आस्थावान लोगों की संवेदनाओं तथा दुर्बलों की सहायता करने की प्रवृत्ति को कैश करने में अपनी चतुराई समझते हैं । प्रस्तुत कहानी इसी प्रकार की एक सत्य घटना का आधार लेकर सामाजिक विसंगति को प्रस्तुत करती है।